हड़प्पा संस्कृति

हड़प्पा संस्कृति

भारत की पहली मानी हुई सभ्यता है हड़प्पा सभ्यता। इसमें दो नामों का प्रयोग है: “सिंधु-सभ्यता” या “सिंधु घाटी की सम्यता” और हड़प्पा संस्कृति, लेकिन इनका मतलब एक है। भारत में यह कई हज़ार वर्षों पहले मौजूद थी।

कैसा पड़ा “हड़प्पा” नाम


1921 में जब जॉन मार्शल भारत के पुरातात्विक विभाग के निर्देशक थे तब पुरातत्वविद् दयाराम साहनी ने इस जगह पर सर्वप्रथम खुदाई करवाई थी। 1922 में सिंध में मोहेनजोदड़ो की खुदाई हुई तो विद्वानों ने सोचा कि यह सभ्यता पूर्णतया सिंधु घाटी तक ही सीमित थी। अतः इस सभ्यता के लिए “सिंधु-सभ्यता” या “सिंधु घाटी की सभ्यता” संज्ञाओं का ही प्रयोग उचित समझा गया। धीरे-धीरे नए स्थलों की खुदाई हुई। पता चला कि यह सभ्यता दूर तक फैली थी। विद्वानों ने इसे “सिंधु सभ्यता” या “सिंधु-घाटी की सभ्यता कहना उचित नहीं समझा तथा इसके लिए हड़प्पा संस्कृति जैसी गैर-भौगोलिक शब्द के प्रयोग का निर्णय किया गया। हड़प्पा इस सभ्यता से सम्बन्धित सर्वप्रथम ज्ञात स्थल होने के साथ-साथ इसका सबसे बड़ा नगर है। इस नगर के सर्वाधिक विशाल आकार के कारण विद्वान इसे इस संस्कृति के क्षेत्र की राजधानी होने का अनुमान भी लगाते हैं। इसलिए सिन्धु सभ्यता को हड़प्पा संस्कृति कहना सही है।
हड़प्पा संस्कृति का उदय भारतीय उपमहाखण्ड के पश्चिमोत्तर भाग में हुआ। इसका विस्तार पंजाब, सिंध, राजस्थान, हरियाणा, जम्मू, गुजरात, बलूचिस्तान, उत्तरी-पश्चिमी उत्तर प्रदेश तथा उत्तरी अफगानिस्तान तक था। यह समूचा क्षेत्र एक त्रिभुजाकार दिखाई देता है। हड़प्पा संस्कृति के विस्तार का क्षेत्रफल लगभग 1,299,600 वर्ग किलोमीटर बताया जाता है। यह नील घाटी की मिस्र सभ्यता और दजला-फरात में मैसोपाटामिया की सभ्यता के क्षेत्रों से भी बड़ा है।

पश्चिमी पंजाब – इस क्षेत्र का सबसे महत्त्वपूर्ण स्थल हड़प्पा है जो रावी के सूखे मार्ग पर स्थित है।
सिन्धु – इस क्षेत्र में मोहनजोदड़ो, चान्हूदड़ो, जुडेरजोदड़ो (कच्छ मैदान में), अमरी, आदि प्रमुख स्थल हैं।
बलूचिस्तान – इस क्षेत्र में तीन स्थल महत्त्वपूर्ण हैं: सुतकागेंडोर (दश्क नदी के तट पर), सोतका फोह (शादीकोर के तट पर), बानाकोट (विन्दार नदी के तट पर) हैं।
पूर्वी पंजाब – उत्खननों में प्राप्त इस क्षेत्र में तीन स्थल लोकप्रिय हैं और यह हैं – रोपड़, संघोल तथा चण्डीगढ़ के पास के स्थल।
जम्मू – इस क्षेत्र में माँदा नामक (अखनूर के समीप) स्थल प्राप्त हुआ है।

हड़प्पा संस्कृति कितनी प्राचीन


हड़प्पा संस्कृति कितने वर्ष पुरानी है? इस बारे में विद्वानों की अलग-अलग राय हैं। कारण यह भी है कि उस समय जो लिपि प्रचलित थी उसको अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है। अर्नेस्ट मैके तथा अन्य विद्वानों ने हड़प्पा संस्कृति का समय लगभग 4009 ईसा पूर्व बताया है। लेकिन अधिकांश भारतीय विद्वान इस सभ्यता को 2500 ई.पू के लगभग का मानते हैं। बगदाद तथा एलम की खुदाई में प्राप्त मुहरों से माना गया कि हड़प्पा संस्कृति मैसोपोटामिया सभ्यता की समकालीन थी।

हड़प्पा संस्कृति किसने बनाई

कर्नल स्यूअल तथा डा. गुहा जैसे विद्वानों के अनुसार इनके निवासी चार विभिन्‍न नस्लों के थे। ये नस्ल – आस्ट्रेलोअड, भूमध्यसागरीय, मंगोलियन और अल्पाइन थीं। इनमें से अंतिम दो नस्लों के लोगों की केवल एक खोपड़ी हड़प्पा संस्कृति के अवशेषों में प्राप्त हुई। कुछ विद्वान हड़प्पा संस्कृति के निर्माता भारत के अनार्यों या द्रविड़ों लोगों को मानते हैं। उनका कहना है कि हड़प्पा और मोहनजोदड़ो नामक नगरों में जो मकान मिले हैं, उनके दरवाजों की लंबाई कम है जबकि आर्य लम्बे कद के थे। दूसरा, आर्यों के जीवन में घोड़े एवं गाय का बहुत महत्त्व था. जबकि इन जानवरों के अवशेष हड़प्पा संस्कृति की खुदाई में बहुत कम प्राप्त हुए हैं। तीसरा, हड़प्पा संस्कृति के लोग सांड को पवित्र समझकर पूजते थे, दक्षिण भारत में आज भी द्रविड़ इसको पूजते हैं।

हड़प्पा संस्कृति की दिलचस्प बाते

नगर योजना और इमारतें


हड़प्पा संस्कृति की एक अद्भुत विशेषता इसकी नगर योजना थी। यद्यपि अब तक हड़प्पा संस्कृति से संबंधित 250 से भी अधिक स्थलों का उद्घाटन हो चुका है लेकिन इनमें से छह स्थलों को ही नगर माना जाता है। वे हैं :- हड़प्पा, मोहजोदड़ो, चान्हुदड़ो, लोथल, कालीबंगा तथा बनबाली. इनमें दो नगर (हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो) सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं। इन दोनों में करीब 483 किलोमीटर का फासला है।

हड़प्पा

विद्वानों की राय है कि हड़प्पा नगर आकार में सभी नगरों से बड़ा था। इसे सुव्यवस्थित योजना के अनुसार बनाया गया था और यहां की आबादी सघन थी। इसमें दो खण्ड थे: पूर्वी और पश्चिमी. यहां की दो सड़के सीधी व चौड़ी थीं जो एक-दूसरे को समकोण काटती थी. इस नगर के चारों तरफ एक विशाल दीवार बनी हुई थी। यहां के लोग पक्की ईटों के मकानों में रहते थे। इस नगर की सड़कें व गलियां इस प्रकार बनायी गई थीं कि हवा चलने से वे अपने-आप स्वच्छ हो जाती थीं।

मोहनजोदड़ो

हड़प्पा की भांति यह नगर भी योजनाबद्ध तरीके से बनाया गया था। यह स्थल, जिसका आकार लगभग एक वर्गमील है, दो खण्डों में विभाजित है: पश्चिमी और पूर्वी. पश्चिमी खण्ड अपेक्षाकृत छोटा है. इसका सम्पूर्ण क्षेत्र गारे और कच्ची इंटों का चबूतरा बनाकर ऊँचा-उठाया गया है। सारा निर्माण कार्य इस चबूतरे के ऊपर किया गया है। मोहनजोदड़ो की मुख्य सड़क 10 मीटर चौड़ी तथा 400 मीटर लंबी थी। यहां के मकान हड़प्पा से बड़े होते थे।

चान्हूदड़ो
इसका थोड़े से ही हिस्से का उत्खनन हुआ है। यहां जो महत्त्वपूर्ण निर्माण-कार्य पाया गया, उसमें एक मनके बनाने का कारखाना भी था।

पक्के ओर सुंदर भवन

हड़प्पा संस्कृति में मकान सड़कों के किनारे बने हुए थे ओर इन्हें बनाने में पक्की इंटें लगायी गई थीं। हड़प्पा संस्कृति के नगरों में पक्‍क़ी ईटों का प्रयोग एक अद्भुत बात है, क्योंकि मिस्र के समकालीन भवनों में मुख्यतः धूप में सुखाई गई इंटों का ही प्रयोग होता था। मैसोपोटामिया (वर्तमान ईराक) में भी पकाई गई ईंटों का प्रयोग था लेकिन हड़प्पा संस्कृति से पकाई गई ईंटों का प्रयोग वहां से कई गुणा ज्यादा होता था। सभी मकानों में एक कुंआ और स्नानागार थे। खुदाई में मिले खंडहारों को देखकर विद्वानों ने अनुमान लगाया है इस सभ्यता के मकानों में खिड़कियाँ और रोशनदान और मकान 8 मीटर तक ऊँचे होते थे। साधारणतया मकानों की दीवारें 2-2 मीटर तक मोती होती थीं।

सड़कें व गलियाँ

इन नगरों की सड़कें और गलियाँ सीढ़ी और चौड़ी थी। यहां की सड़कें 400 मीटर लंबी और 10 मीटर चौड़ी थी। वे या तो उत्तर से दक्षिण की ओर या पूर्व से पश्चिम की ओर सीढ़ी जाती थीं। मुख्य सड़कों के साथ-साथ अन्य छोटी सड़कें भी जाती थीं जिनकी चौड़ाई दो से तीन मीटर के बीच होती थीं। इतिहासकार मैके के मतानुसार, “यह सड़कें तथा गलियां इस प्रकार बनी हुई थीं कि चलने वाली वायु एक कोने से दूसरे कोने तक नगर को स्वयं ही साफ कर दे।”

कृषि

हड़प्पा के लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि था। नदियों से सिंचाई की जाती थी। विद्वान द्वारा अभी तक नौ फसलें पहचानी गई हैं: चावल (केवल गुजरात तथा सम्भवत: राजस्थान में ), जौ की दो किस्में, गेहूं की तीन किस्में, कपास, खजूर, तरबूज, मटर और एक ऐसी किस्म जिसे ब्रासिका जुंसी की संज्ञा दी गई है (चूंकि कपास सबसे पहले इसी प्रदेश में पैदा किया गया था, इसलिए यूनानियनों ने इसे सिंडोन, जिसकी व्युत्पत्ति सिन्ध शब्द से हुई है, दिया था)।

हड़प्पा संस्कृति में पशुपालन

सिन्धुवासियों का दूसरा मुख्य व्यवसाय पशुपालन था। बैल, भैंस, बकरी और सूअर उनके पालतू पशु थे। हाथी और घोड़े के अस्तित्व का भी पता चला है (सुरकोतड़ा में भी घोड़े की अस्थियां मिली हैं)।

व्यापार और वाणिज्य

हड़प्पा निवासियों द्वारा आंतरिक एवं विदेशी दोनों प्रकार का व्यापार किया जाता था। आंतरिक व्यापार की दृष्टि से तात्कालिक नगर (हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, चान्हूदाड़ो, रोपड़, सुरकोतड़ा, आलमगीरपुर आदि) व्यापार और वाणिज्य के केंद्र थे। एक स्थान से दूसरे स्थान को माल बैलगाड़ियों, इक्कों तथा पशुओं पर लाया ले जाया जाता था।

नाप-तौल और माप साधन

सिन्धु घाटी में तोलने की तराजू भी खुदाई में प्राप्त हुई है। सर्राफों तथा जौहरियों के काम में आने वाले छोटे बाट भी मिले हैं जो स्‍लेट और पत्थर के होते थे। सबसे छोटे बाट का वजन 13.64 ग्राम के बराबर था और सबसे बड़े बाट का वजन इससे 640 गुना अधिक था।

हड़प्पा संस्कृति की लिपि

सिंधु घाटी के लोगों को लेखन शैली या लिपि का ज्ञान प्राप्त था। 1923 में इस लिपि के बारे में पूरी जानकारी मिल चुकी थी, फिर भी इस लिपि को पढ़ने के सारे प्रयत्न अब तक असफल सिद्ध हुए हैं। कई विद्वानों का विश्वास है कि यह लेखन शैली भी चित्र लिपि है और इसका प्रत्येक चिन्ह किसी एक वस्तु या भाव को प्रकट करता है।